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Tuesday, March 11, 2014

होली ..... तब और अब


घर-घर
खेली जाती थी
आज सिमट गयी
चर्चा में
कविता में, ग़ज़लों में
रौनक थी 
गली-मोहल्लों की
रंग लगते थे चेहरों पे
अब सजते हैं
मुख-पुस्तिका की दीवारों पे
कवि-सम्मलेन करके
बस होली की होली
अब जलाते हैं
ऐसे होली हम मनाते हैं  

रंग ले,
भर पिचकारी, गुब्बारे
रंगे-पुते चेहरों के संग
घूमती-फिरती थी टोलियाँ
घर-घर मचती थी
होली की अठखेलियाँ
सूनी-सूनी गलियों में
अब कुछ ही
बच्चे देखे जाते हैं
कूद-फांद मचा करके 

नयी पिचकारी की 
केवल होड़ लगा करके 
थोडा सा इतराते हैं 
ऐसे होली हम मनाते हैं

अपने–पराये
अड़ोसी-पड़ोसी
सारे मिलकर के
मिष्ठान कई बनाते थे
गुंजिया, मठरी, कांजी
दही-पकोड़ी के संग
मल-मल के
गुलाल लगाते थे
गूगल से 
करके कॉपी-पेस्ट  
रंग, मिठाई, रंगीले कार्ड
आज हम भिजवाते हैं
ऐसे होली हम मनाते हैं 


देवर-भाभी
ननद-भौजाई, जीजा-साली
रास रचा,
राधा–कृष्ण सा
आनंद बड़ा उठाते थे
डरती-डरती अब बालाएं
अस्मत अपनी बचाने को
रह जाती हैं
घर में ही सिमटके
नेताओं के बड़े उदगार
सब सुरक्षित बता करके
मीडिया में सुंदर
छवि अब बनाते हैं
ऐसे होली हम मनाते हैं 


होली तो होली 
कहके टालें कैसे 
समस्या को सुलझा 
आगे कदम बढाते हैं
धर्म
संस्कृति 
परम्परात्यौहार 
जोड़े इक तार में
देश-प्रेम की रीत
 
चलो नए सिरे से निभाने को
हम  
हाथों में हाथ बढाते हैं 
चलो इस बार 
ऐसे होली हम मनाते हैं..
..... पूनम माटिया 'पूनम'
      

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